Discussion On The Resolution Regarding Need To Constitute The Board … on 10 December, 1999

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Lok Sabha Debates
Discussion On The Resolution Regarding Need To Constitute The Board … on 10 December, 1999


Title: Discussion on the resolution regarding need to constitute the Board for all-around development of hilly states and hilly regions of the country, especially in the Himalayan Belt, so as to bring them at par with developed regions in the plains of the country.

1703 hours

MR. CHAIRMAN: The House will now take up the Resolution on development of hilly regions by Shri Maheshwar Singh. Before we take up the Resolution for discussion, we have to allot time for it. Shall we allot two hours time for the Resolution?

SEVERAL MEMBERS: Yes.

MR. CHAIRMAN: So, two hours time is allotted for this Resolution. Shri Maheshwar Singh may move his Resolution.

श्री महेश्वर सिंह (मंडी) : सभापति महोदय, मैं आपकी अनुमति से निम्न शब्दों में निजी संकल्प प्रस्तुत करता हूं : “कि इस सभा का मत है कि देश के पर्वतीय राज्यों और पर्वतीय क्षेत्रों, विशेषकर हिमालय क्षेत्र के सर्वांगीण विकास के लिए केन्द्रीय सरकार द्वारा एक बोर्ड गठित किया जाये ताकि उन्हें देश के विकसित मैदानी क्षेत्रों के बराबर लाया जा सके।” देश को स्वतंत्र हुए ५२ वर्ष से भी अधिक बीत गये, लेकिन खेद का विषय है कि आज भी पहाड़ों और कन्दराओं में बसे हुए लोग अपने क्षेत्र के विकास के लिए जूझ रहे हैं। जब इन हिमालय की गोद में बसे हुए कुछ रमणीय स्थानों पर पर्यटक बन्धु जाते हैं या देश के वशिष्ट व्यकित जाते हैं तो वे आकर हमसे कहते हैं कि सचमुच पहाड़ों में बहुत ज्यादा प्रगति हुई है, लेकिन सत्यता बिल्कुल इससे भिन्न है। अगर सत्यता को देखना हो तो इन पहाड़ों के जो अन्दर के क्षेत्र हैं, जहां के लोग पहाड़ों और कन्दराओं में बसे हुए हैं, आज भी वे विकास की दृष्िट से पिछड़ते जा रहे हैं। इसमें कोई दो राय नहीं हैं कि प्रान्तीय सरकारें अपने सीमित साधनों को ध्यान में रखते हुए इन प्रदेशों में विकास के लिए प्रयासरत हैं। जैसे कि हिमाचल प्रदेश की सरकार वषर्ों से प्रयासरत है और वर्तमान सरकार भी अपने सीमित साधनों को ध्यान में रखते हुए अधिक से अधिक ध्यान इस पहाड़ी प्रान्त की तरफ, हिमाचल प्रदेश की तरफ दे रही है।   इसमें भी कोई दो राय नहीं कि जो पहाड़ी प्रांतों से आने वाले सांसद हैं, वे समय-समय पर इस माननीय सदन में पहाड़ी क्षेत्रों से सम्बन्िधत विकास के बारे में अपनी समस्याएं उठाते रहे हैं। लेकिन हमारी संख्या इतनी कम है कि इस माननीय सदन में हमारी आवाज गूंजकर रह जाती है। इस समय पहाड़ी प्रांतों से आने वाले सांसदों की संख्या, अगर मैं गलती नहीं कर रहा हूं तो वह लगभग २९ है, वेस्टर्न घाट वाले तालुका इसके अतरिकत हैं। यह भी सत्य है कि भारत सरकार ने समय-समय पर अनेक योजनाएं बनाई हैं। जैसे हिल एरिया डवलपमेंट प्रोग्राम, वेस्टर्न घाट डवलपमेंट प्रोग्राम, नार्थ-ईस्ट कौंसिल, बोर्डर एरिया डवलपमेंट प्रोग्राम, डेजर्ट डवलपमेंट प्रोग्राम और ड़ाउट एरिया डवलपमेंट प्रोग्राम। १९८३ या ८४ में नेशनल डवलपमेंट कौंसिल में भी इस बात पर चर्चा हुई थी कि नेशनल हिमालयन डवलपमेंट पालिसी बनाई जाए। तत्कालीन योजना बोर्ड के सदस्य डा. एस.जेड. कासिम की अध्यक्षता में एक समति का गठन किया गया था। उस समति ने सिफारिश की कि नार्थ वेस्टर्न हिमालयन कौंसिल बनाई जाए। लेकिन आज तक उस पर कोई कार्यवाही नहीं हो पाई है। मैं इस मत का हूं कि जब तक राष्ट्रीय स्तर पर नेशनल हिमालयन डवलपमेंट बोर्ड का गठन नहीं किया जाता, तब तक हमारी समस्याओं का समाधान नहीं होगा। चाहे निचले स्तर पर अनेक बोर्ड गठित कर दें, चाहे विकास समतियां बना दें, लेकिन केन्द्रीय स्तर पर इनकी समीक्षा करना नितांत आवश्यक है। यह हमारे लिए गौरव का विषय है कि वर्तमान प्रधान मंत्री माननीय अटल बिहारी वाजपेयी के हृदय में हिमालय के लिए विशेष प्रेम है। इससे पहाड़ों में बसने वाले लोगों में एक आशा की किरण जगी है कि आने वाले समय में उनकी समस्याओं का अवश्य समाधान होगा। देश के पहाड़ी क्षेत्र दो केटेगरी में बांटे गए हैं। एक तो जो पहाड़ी राज्य हैं, जिसमें जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, सकिकम, मेघालय, मणिपुर, त्रिपुरा, अरूणाचल प्रदेश, मिजोरम आते हैं, यहां से लोक सभा के कुल मिलाकर २१ सांसद चुने जाते हैं। ये स्पेशल केटेगरी स्टेटस कहलाती हैं। इनको ९० प्रतिशत केन्द्रीय सहायता के रूप में राशि दी जाती है और शेष १० प्रतिशत ऋण के रूप में दी जाती है। जबकि अन्य प्रांतों को ३० प्रतिशत आर्िथक सहायता अनुदान के रूप में दी जाती है और ७० प्रतिशत ऋण के रूप में दी जाती है। कुछ समय पूर्व तक जो भी इन प्रांतों का नॉनप्लांड एकसपेंडिचर होता था, वह केन्द्रीय सरकार सहन करती थी, उसे राइट आफ कर दिया जाता था। लेकिन नौवें वित्त आयोग के बैठने के बाद जो पहाड़ी क्षेत्रों को सुविधा मिलती थी, वह विदड़ा कर ली गई। फलस्वरूप ये प्रांत आर्िथक संकट के घेरे में हैं, कयोंकि इनकी आय के साधन सीमित हैं। इनकी जितनी आय है, वह वहां के कर्मचारियों के वेतन देने में ही चली जाती है और विकास कायर्ों में कुछ नहीं बच पाता। दूसरी केटेगरी में वे पहाड़ी क्षेत्र हैं, जिनको हिल एरिया डवलपमेंट प्रोग्राम के अंतर्गत लिया गया है, महेश्वर जारी जिसमें उत्तर प्रदेश के नौ जिले आते हैं और जहां से चार सांसद चुनकर आते हैं। असम के दो जिले और दो सांसद चुनकर आते हैं। पश्िचम बंगाल में दार्िजलिंग जिला है और तमिलनाडु में नीलगिरी जिला आता है। जहां से एक-एक सांसद चुनकर आते हैं। इसके अतरिकत, अगर मैं गलती नहीं कर रहा हूं तो , वैस्टर्न घाट में १५९ तालुके आते हैं। जहां तक पहाड़ी क्षेत्रों का संबंध है, प्रकृति के अलावा कुछ समस्यायें और बाधायें हमें विरासत में मिली है, जिसके फलस्वरूप हम सात कारणों से विकास के क्षेत्र में मैदानी क्षेत्रों से पिछड़ते जा रहे हैं। अन्य कारणों के साथ-साथ कभी-कभी असंतुलित विकास भी उग्रवाद को जन्म देता है। स्वभाव से पहाड़ों में रहने वाले लोग शान्ितप्रिय होते हैं, लेकिन यह देखा गया है कि जहां-जहां भी उग्रवाद पैदा हुआ है, जहां-जहां भी लोगों ने एजिटेशन किए हैं, उन प्रान्तों के लिए समय-समय पर पैकेज मिलते रहे हैं। मेरा नम्र निवेदन है कि इन पहाड़ी प्रान्तों के बारे में माननीय सदन दलगत राजनीति से ऊपर उठकर सोचे। मैं पहाड़ी क्षेत्रों से संबंधित सात बिन्दुओं की ओर सदन का ध्यान दिलाना चाहता हूं। प्रथम बिन्दू – हमारी कठिन भौगोलिक स्िथति एवं प्रतिकूल मौसम पहाड़ों में कहीं नाले गहरे हैं। चाहे ऊंची पहाड़ियां हो या ऊंची चट्टानें, इन स्थानों पर विकास का कार्य करना सरल नहीं है। उदाहरण के लिए, एक कच्ची सड़क निकालनी हो तो कम के कम तीन लाख रुपया प्रति किलोमीटर खर्चा आ जाता है, जबकि मैदानी क्षेत्रों में अगर सड़क का निर्माण करना हो, तो तीन लाख रुपए में कम से कम ५-६ किलोमीटर सड़क बन सकती है। जहां तक मौसम का संबंध है, पहाड़ों में अनेक क्षेत्र ऐसे हैं, जो सर्दी के मौसम में बाकी भागों से कट जाते हैं। आने-जाने का कोई साधन नहीं रहता है। उदाहरण के लिए, हिमाचल प्रदेश के लाहौल-स्फीति क्षेत्र मेरे चुनाव क्षेत्र में पड़ता है, इस क्षेत्र में बर्फ पड़ने या हिमखण्ड के टूटने से लगभग छ:-सात माह तक सम्पर्क कट जाता है। ऐसी स्िथति में प्रान्त की सरकार को हैलीकाप्टर द्वारा सर्िवस शुरू करके वहां के लोगों के लिए सुविधायें प्रदान करनी पड़ती है। जहां तक सम्पर्क सड़कों का संबंध है, पहाड़ी क्षेत्रों में लोगों के लिए सड़कें तो बनाई गई है, लेकिन उनको पकका करने की समस्या है। हमारे पास आर्िथक साधन सीमित हैं। यह सत्यता है कि पहाड़ों में रहने वाले लोग जब सुबह नहा कर काम पर जाते है और शाम को वापिस लौटते हैं, तो उनके सिर पर इतनी धूल पड़ी होती है कि जब तक वे अपना मुंह न धो लें, तब तक उनकी धर्मपत्नी भी उनको पहचान नहीं पाती हैं। इसलिए मेरा निवेदन है, सड़कों के निर्माण के लिए अगर राशि आबादी के आधार पर दी जाती रही और भौगोलिक स्िथति को नहीं देखा गया, तो पहाड़ी प्रान्त पिछड़ते चले जायेंगे। दूसरा बिन्दू – पहाड़ों का विस्त्ृात क्षेत्रफल एवं कम जनसंख्या। पहाड़ी राज्यों का कुल क्षेत्रफल ४०६१.७४ स्कवेयर किलोमीटर है और जनसंख्या दो करोड़ से भी कम बैठती है। उत्तर प्रदेश के नौ पहाड़ी जिलें है। अगर मैं गलती नहीं कर रहा हूं, तो इनका क्षेत्रफल भी लगभग ५२ हजार स्कवेयर किलोमीटर बैठता है और जनसंख्या केवल ६० लाख है। पोपुलेशन डैंसिटी कहीं-कहीं तो ४०-५०-६० पर-स्कवेयर किलोमीटर बैठती है। महेश्वर सिंह जारी हिमाचल प्रदेश के जनजातीय क्षेत्रों का क्षेत्रफल २३,६५५ स्कवेयर किलोमीटर है। महोदय, मैं आपके माध्यम से सदन के ध्यान में यह लाना चाहूंगा कि पापुलेशन की जो डेंसिटी पर-स्कवेयर किलोमीटर है, उसमें २० और २५ लोग हैं। हिमाचल प्रदेश का कुल क्षेत्रफल ५५,००० स्कवेयर किलोमीटर बैठता है। मैं इस क्षेत्र की जानकारी देना चाहता हूं, ३२,००० स्कवेयर किलोमीटर का मैं प्रतनधित्व इस सदन में करता हूं। इस ३२,००० स्कवेयर किलोमीटर में से २३,६५५ स्कवेयर किलोमीटर तीन जनजातीय क्षेत्र के लिए है। जिसमें पहले लाहोल-स्फीति, किन्नोर और भरमौर आते है। इन क्षेत्रों में पापुलेशन की डेंसिटी १५ और ३० से अधिक नहीं बैठती है। महोदय, मेरा तीसरा बिन्दु यह है कि आय के सीमित साधन हैं। मेरे लिए यह प्रसन्नता का विषय है कि शांता कुमार जी यहां विराजमान हैं, जो कि खाद्य एवं आपूर्ित मंत्री हैं और लम्बे अर्से तक हिमाचल प्रदेश के मुख्य मंत्री भी रहे हैं। जहां तक पहाड़ी प्रांतों का सवाल है, मैं विशेषकर हिमाचल प्रदेश की बात करूंगा। हमें प्रकृति ने बड़ी उदारता से सब कुछ दिया है। मुझे याद है कि शांता कुमार जी कहा करते थे कि हमें ऐसा पानी दिया है, जो बिजली पैदा करने की क्षमता रखता है। ऐसा पत्थर दिया है, जिससे हम सीमेंट बना सकते हैं। हमें प्राकृतिक सौन्दर्य ऐसा दिया है जिससे न केवल देश से बल्िक विदेशों से भी पर्यटक आते हैं, लेकिन आय के सीमित साधन होने से यह एक ऐसा प्रदेश है जो प्रकृति की दृष्िट से अमीर है लेकिन वहां रहने वाले लोग गरीब हैं। अगर हमें उदारता से केन्द्र से सहायता मिले तो यह पहाड़ी प्रांत, विशेषकर हिमाचल प्रदेश जैसा प्रांत आत्मनिर्भर बन सकता है। महोदय, जहां तक विद्युत उत्पादन का संबंध है, आज अकेला हिमाचल प्रदेश २२,२०० मेगावाट बिजली पैदा करने की क्षमता रखता है लेकिन सीमित साधन होने के कारण अब तक केवल ८०० मेगावाट बिजली का दोहन हो सका है। अभी जो निर्माणाधीन योजनाएं हैं उससे २२०० मेगावट ओर बिजली पैदा हो जाएगी, लेकिन शेष १९,२०० मेगावाट के लिए पैसे की जरूरत है। मैं वर्तमान सरकार को बधाई देना चाहूंगा, जो प्रेम कुमार धूमल जी के नेत्ृात्व में हिमाचल प्रदेश में चल रही है। हिमाचल प्रदेश की एक महत्वाकांक्षी जल विद्युत परियोजना है, जिसका नाम पार्वती जल विद्युत परिजोयना है और उसका निर्माण एनएचपीसी करने जा रही है, जो २०५१ मेगावट बिजली पैदा करने की क्षमता रखती है। मैं प्रधानमंत्री जी का आभार प्रकट करना चाहूंगा, इसका प्रधानमंत्री जी के कर-कमलों द्वारा १२ दिसम्बर को वधिवत रूप से शिलान्यास हो जाएगा। जहां तक पत्थर का संबंध है, जैसे मैंने कहा कि हमें ऐसा पत्थर दिया है, जिससे सीमेंट बन सकता है। लेकिन जब सीमेंट के कारखाने की बात करते हैं तो पर्यावरण की बात आ जाती है। इसके बारे में मैं एक बात कहूंगा, यह सही है कि अगर इन पहाड़ों में जंगल कटेंगे तो न केवल पहाड़ी प्रांतों का नुकसान होगा बल्िक जो नीचे के मैदानी क्षेत्र हैं उन्हें भी क्षति का सामना करना पड़ेगा। जहां इन जंगलों को बचाने का हमारा दायित्व है वहां केन्द्र सरकार का भी दायित्व बनता है कि ऐसे प्रांतों की अधिक से अधिक रक्षा की जाए। उनको अधिक से अधिक आर्िथक सहायता दी जाए। वन सम्पदा हमारे लिए आय का एक साधन था, लेकिन १९८० में, जब से फोरेस्ट लैंड कंजरवेशन एकट आया है उसने कहीं-कहीं हमारे लिए अनेक समस्याएं पैदा कर दीं, चाहे हिमाचल प्रदेश, पूवर्ोत्तर राज्य या अन्य कोई पहाड़ी प्रांत हो। वन लगभग तीन प्रकार के होते हैं।   एक डिमारकेटिड जंगल है, दूसरा रिजर्व जंगल है और तीसरा थर्ड-कलॉस जंगल है। लेकिन ब्रटिश काल में जब फॉरेस्ट सैटलमेंट हुआ तो उन्होंने एक और श्रेणी बनाई जिसे त्ृातीय श्रेषी वन भूमि कहा गया। इसका अर्थ है कि वहां वन तो नहीं है लेकिन वह वन-योग्य भूमि है। इसी से सबसे बड़ी समस्या खड़ी हो गयी। अगर स्कूल के लिए भवन का निर्माण करना हो, छोटे-छोटे विकास कार्य करने हों तो कहीं भी आपके लिए भूमि नहीं है। कारण यह है कि जो भी भूमि खाली पड़ी हुई है वह त्ृातीय वन भूमि है चाहे उसमें एक भी व्ृाक्ष न हो। जब भी ट्रांसफर के लिए हम कोई केस भेजते हैं तो एक ही आपत्ित लगती है कि कितने पेड़ लगे हुए हैं। जब उनको बताया जाता है कि एक भी पेड़ नहीं है तो कहा जाता है कि वन-भूमि है तो पेड़ तो होंगे ही। मैं आपके माध्यम से मंत्री महोदय से निवेदन करना चाहूंगा कि इन भूमियों की रि-आईडेंटीफिकेशन करने की आवश्यकता है। कुछ गांव हैं जो जंगलों से घिरे हुए हैं। अगर इन गांवों के इर्द-गिर्द जंगल हैं तो उनका श्रेय भी वहां बसे लोगों को ही जाता है। कोई भी जंगल लोगों के सहयोग के बिना तैयार नहीं होता है। जब गांव के लोगों को मूलभूत सुविधाएं भी नहीं मिलती हैं तो वे कह उठते हैं कि कयों हमने ये जंगल पाले। इनके कारण हमें मूलभूत सुविधाएं भी नहीं मिलती हैं। इसलिए जंगलों के साथ बसे हुए लोगों के लिए भी आप सड़कें बनाएं। अगर लोक निर्माण विभाग से नहीं बनवानी हैं तो केन्द्र सरकार इसके लिए कोई नियम बनाए ताकि वन विभाग के माध्यम से कम से कम उन्हें सम्पर्क सड़कें तो मिलें। आज जंगलों में जानवरों की बढ़ती संख्या भी इन पहाड़ी प्रांतों में माताओं और बहनों के लिए एक समस्या बन गयी है। यह सारे देश की समस्या है लेकिन पहाड़ी प्रांतों में यह और भी विकट समस्या है। इसलिए इस तरफ भी मंत्री जी का ध्यान आकर्िषत किये जाने की आवश्यकता है। सभापति महोदय : इसके लिए दो घंटे निर्धारित हैं और आपको बोलते २० मिनट से ज्यादा समय हो गया है। मैं आपको रोक नहीं रहा हूं, लेकिन सभी माननीय सदस्य इसमें भाग ले सकें, इसलिए आप शीघ्र समाप्त करें। साढ़े पांच बजे हमें दूसरा विषय लेना है। श्री महेश्वर सिंह (मंडी) : सभापति जी, मैं तीसरे बिंदू पर हूं। चार-पांच मिनट में मैं समाप्त कर दूंगा। तीसरी बात मैं पर्यटकों के बारे में कहना चाहता हूं। हमारे यहां यातायात का साधन प्राय: भूतल परिवहन है। रेल तो नाम मात्र को हैं। यह भी एक सत्यता है कि रेलों की दृष्िट से अगर हमें कुछ मिला है तो ब्रटिश टाइम का मिला हुआ है। चाहे हम कालका-शिमला लाइन की बात हो या पठान कोट से जोगिन्द्र नगर रेलवे लाइन की बात हो। सन १९२४ में कभी जोगिन्द्र नगर लाइन को कुलू तक, झुबू पास के नीचे टनल बनाकर ले जाने का सर्वेक्षष हुआ था। आज जो टॉय ट्रेन दार्जलिंग में चलती है उसकी हालत यह है कि ट्रेन की बोगियों के खराब होने की वजह से संख्या घटती जा रही है। जो भी बोगी खराब हुई, उसको उठाकर फैंकने का , यह सिलसिला चल रहा है। पहले सकिकम में गल खोला तक रेल जाती थी। अब केवल सिलीगुडी तक रेल जाती है। कोई भी बोगी नयी नहीं बन रही है और ४६ किलोमीटर का रेलवे ट्रैक भी समाप्त हो गया है। हिमाचल में आमान परिवर्तन की बात कई बार हम उठा चुके हैं और कई बार माननीय मंत्रियों ने वायदे किए हैं और कहा है कि गेज परिवर्तन हो जाएगा। माननीय शांता कुमार जी के प्रयासों से एक कांगड़ा कवीन चली है। अब कहते हैं कि उससे आय नहीं होती है इसलिए वह वायबल नहीं है। जब वह गाड़ी फर्सट-कलॉस के यात्रियों के लिए होगी तो आय तो कम होगी ही। इसलिए इसके बारे में भी सोचने की आवश्यकता है। जहां तक एयर-सर्िवसेज का सवाल है, आज तीन हवाई-पट्टियां हिमाचल प्रदेश में हैं लेकिन तीनों की स्िथति अच्छी नहीं है। जब तक नियमित रूप से फलाइटस नहीं चलेंगी, तब तक नियमित रूप से पर्यटक नहीं आयेंगे। साथ ही वह सेवा इतनी महंगी है कि नेपाल जाना सस्ता है लेकिन हिमाचल जाना आज महंगा है।   जब तक सब्िजडाइज्ड रेट नहीं होंगे तब तक पर्यटक इन क्षेत्रों में नहीं जाएंगे। इसलिए इस बात की ओर ध्यान देने की आवश्यकता है। जहां तक चौथे बिन्दु का सवाल है, वह है मुख्य व्यापारिक केन्द्रों से ग्रामीण क्षेत्रों की अत्यधिक दूरी होने के कारण न्यून आर्िथक गतवधियों के कारष क्षेत्र विकास में बाधा क्षेत्र के विकास में बाधा आती है। मंडियां इतनी दूर हैं कि उपज को बेचने में दिककत आती है। जब तक ट्रांसपोर्ट सब्िसडी नहीं दी जाएगी, हम अपने उत्पादन को सही तरीके से मार्िकट तक नहीं पहुंचा सकेंगे। कूलिंग चेन की भी व्यवस्था करने की आवश्यकता है तभी इन पड़ाहों की उपज चाहे वह फलोरोकल्चर है, या अन्य चीजें हैं, पैरिशेबल गुडस हम मार्िकट तक ला सकेंगे।   पांचवा प्वाइंट सामान्य आधारभूत ढ़ांचे में पिछड़ापन एवं सीमित सामाजिक विकास है। शिक्षा हो या स्वास्थ्य सुविधा हो या दूसरी कोई सुविधा हो, दुर्गम स्थानों पर कोई कर्मचारी जाने को तैयार नहीं होता है। सबसे बड़ी समस्या इन क्षेत्रों में कर्मचारियों को भेजने की होती है। फासले इतने दूर हैं, स्कूल इतने दूर हैं कि कहने को कहा जाता है कि बहुत ज्यादा विकास हुआ है लेकिन बहुत कुछ करने की जरूरत है। कहीं स्कूल भवन नहीं है। उदारता से अधिक से अधिक धन नहीं दिया जाएगा तो पहाड़ी क्षेत्रों की समस्या बनी रहेगी। छठा बिन्दु महंगा प्रशासन एवं महंगा विकास और कई स्थानों पर बार्डर एशिया के कारण सुरक्षा पर अधिक व्यय का है। हमारा बॉर्डर एरिया होने के कारण सुरक्षा पर अधिक व्यय होता है। हिमाचल प्रदेश के जिन जनजातीय क्षेत्रों की मैंने बात कही, वहां एक तरफ चाइना और दूसरी तरफ पाकिस्तान बॉर्डर लगता है। हाल ही में कारगिल जाने के लिए लद्दाख का जो रास्ता था, सबसे शार्टेस्ट रूट लाहौल होकर जाता है लेकिन वहां रोहतांगपास सबसे बड़ी बाधा है। उसके नीचे टनल बनना चाहिए। बहुत पहले एक सर्वेक्षण हुआ था लेकिन आज तक उसके लिए पैसा नहीं मिल रहा है। यह देश की सुरक्षा का सवाल है। ५०० करोड़ रुपए कोई बड़ी रकम नहीं है। अगर ५०० करोड़ रुपए में यह टनल बन जाता है, तो ४६ किलोमीटर का फासला कम हो जाएगा। बॉर्डर एरिया डैवलपमैंट प्रोग्राम के अन्तर्गत अधिक से अधिक धन उपलब्ध कराया जाए। बॉर्डर एरिया डैवलपमैंट प्रोग्राम के अन्तर्गत यह कहा जाता है कि ये क्षेत्र उस मापदंड में ही नहीं आते जबकि हमारा बॉर्डर सीधा इन क्षेत्रों के साथ लगा है। मेरा आखिरी बिन्दु विकास की धीमी गति और केन्द्रीय प्रायोजित अधिकांश योजना में जनसंख्या आधार है। यहां से जो भी योजना जाती है, उसके लिए कहा जाता है कि उसे जनसंख्या के आधार पर देंगे। उदाहरण के लिए जे.आर.वाई. योजना है। आपको यह जानकर ताज्जुब होगा कि विकास कायर्ों के लिए पर-पंचायत राजस्थान को १ लाख रुपए दिए जाते हैं और हिमाचल प्रदेश को १०-१५ हजार रुपए पर-पंचायत मिलते हैं। हम जब कारण पूछते हैं तो कहते हैं कि जनसंख्या कम है। हम सोचते हैं कि ऐसे में ज्यादा उत्पादन और पैदावार करनी पड़ेगी। यह कौन सा मापदंड है? इसका जनसंख्या आधार नहीं होना चाहिए बल्िक भौगोलिक स्िथति आधार होना चाहिए। इन्हीं शब्दों के साथ मैं अपना प्रस्ताव प्रस्तुत करता हूं। मुझे आशा ही नहीं बल्िक विश्वास है कि माननीय सदस्य इस प्रस्ताव का दलगत राजनीति से ऊपर उठ कर स्वागत करेंगे ताकि मैदानी क्षेत्रों की भांति पहाड़ी क्षेत्र भी विकास में आगे बढ़ सकें। आपने मुझे बोलने का जो अवसर दिया, इसके लिए मैं आपको धन्यवाद देता हूं। “>श्री वीरेन्द्र कुमार (सागर) : सभापति महोदय, महेश्वर सिंह जी द्वारा पर्वतीय क्षेत्र के विकास के लिए बोर्ड गठित करने का जो संकल्प लाया गया है, मैं उस पर बोलने के लिए खड़ा हुआ हूं। देश के अधिकतर पर्वतीय क्षेत्र सीमाओं से लगे हैं। आजादी के पचास वषर्ों के बाद इन क्षेत्रों का जितना विकास होना चाहिए था, उतना नहीं हुआ। शिक्षा, रोजगार, औद्योगिक विकास और चकित्सा सुविधाओं की दृष्िट से देखा जाए तो यह क्षेत्र मैदानी भागों की तुलना में काफी पिछड़े हैं। इन पर्वतीय क्षेत्रों में पर्यटन की बहुत विकसित सम्भावनाएं होती हैं लेकिन कुछ समस्याएं भी होती हैं। पिछले दिनों इन पर्वतीय क्षेत्रों में पर्वतों का अवैध और अव्यवस्िथत रुप से उत्खनन किया गया। इसके साथ-साथ व्ृाक्षों को काटा जाना भी एक कारण बना। इन पर्वतीय क्षेत्रों में विगत दिनों यह देखने में आया कि भूकम्पों की एक श्रृंखला चल पड़ी।”> “>  इस कारण इन क्षेत्रों मे रहने वालों का जीवन अस्त-व्यस्त हो गया है। इसके साथ साथ हमारा यह क्षेत्र विदेश की सीमाओं से लगा हुआ है। परराष्ट्र में निष्ठा रखने वाले विदेशों से अवैध रूप से प्रवेश करके आतंकवादी गतवधियों से इन क्षेत्रों में अशान्ित और अराजकता फैलाते हैं…..”> “>सभापति महोदय : वीरेन्द्र कुमार जी, आप अपना भाषण फिर जारी रखेंगे कयोंकि अब ५.३० बज रहे हैं और हम आधे घंटे की चर्चा लेंगे।”>
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